Whole Story of Kashmir Conflict.(कश्मीर विवाद की पूरी कहानी।)
जम्मू - कश्मीर की पूरी कहानी
हिंदी में , कब ?
कहा ? क्या ? और कैसे ?
हुआ ।
कश्मीर
का पूरा इलाका 2 लाख 22 हजार 236 वर्ग
किलोमीटर में फैला हुआ है, जिसमे से १ लाख २० हजार वर्ग
किलोमीटर के इलाके पर पाकिस्तान एवम चीन का कब्ज़ा है। यानी कि आधे हिस्से पर पाकिस्तान और चीन का
कब्ज़ा है और बाकि के आधे पर भारत का शासन है।
विवाद की जड़ –
पुरे मसले की जड़ की सुरुआत होती है सं 1947 से जब अंग्रेजो द्वारा तीस करोड़ भारतीय नागरिको को आजादी मिल रही थी, वही दूसरी ओर भारत का विभाजन हो रहा था। आजादी के समय भारत के दक्षिण एवं मध्य में हिन्दुओ की आबादी ज्यादा थी और भारत के पूर्व एवं उत्तर पच्छिम में मुस्लिम जनसँख्या ज्यादा थी। और इसी आंकड़े को देखते हुए ब्रिटेन ने हिन्दू बाहुल्य आबादी वाले हिंदुस्तान को भारत एवं मुस्लिम बहुल्य आबादी वाले इलाके को पाकिस्तान के रूप में बाँटने का फै सला किया।
उस समय पुरे भारत में लगभग 565 रियासते थी। उन रियासतों में जम्मू- कश्मीर एक बहुत बड़ा रियासत था , और जम्मू - कश्मीर ही एक मात्रा ऐसा रियासत था जहाँ के मुस्लिम बाहुल्य आबादी पर एक हिन्दू राजा महाराजा हरि सिंह का शासन था।
रूप से कश्मीर जा कर महाराजा हरि सिंह को समझने की कोशिश की , माउंटबैटेन ने महाराज से कहा की 15 अगस्त के पहले वो जम्मू- कश्मीर को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होना चाहिए। फिर महाराज ने अपने आजाद रहने की इक्छा जाहिर की, तो माउंटबैटेन ने महाराजा से कहा की ऐसा करना ठीक नहीं होगा, और साथ - ही -साथ यह भी कहा की अगर वो चाहे तो पाकिस्तान में अपना विलय कर सकते है, भारत इससे कोई एतराज नहीं करेगा। लेकिन वो अपना ये आजादी का राग छोर दे.. यधपि पण्डित
जवाहर लाल नेहरू ये चाहते थे की ये चाहते थे की जम्मू - कश्मीर में एक लोकप्रिय सरकार बने
जो कश्मीरियो की स्वेक्षा से बने कश्मीरी खुद अपनी सरकार चुने जो कश्मीरियो के हितों
के लिए काम करे नेहरू खुद कश्मीरी थे और कश्मीर के लिए वो अपना प्यार जाहिर कर चुके थे। लेकिन महाराजा
हरि सिंह नहीं माने और अगले कोई फैसला न दे कर माउंटबैटेन को महाराज ने पेट दर्द के
बहाने का एक चिट्ठी भेज कर उनसे मिलने नहीं आये। आखिरकार 15 अगस्त का दिन आ गया और
देश आजाद हो गया, लेकिन जम्मू - कश्मीर
न तो भारत का हिस्सा था और न ही पाकिस्तान का। लेकिन पाकिस्तान की नजर कश्मीर पर थी
और अंग्रेजो के जाते ही पाकिस्तान ने कश्मीर पर घेराबंदी शुरू कर दी और हजारो की संख्या
में हतियारो से लैस कबायली हमलावरों ने पाकिस्तानी हुकूमत के इसारे पर पाकिस्तान के
' नार्थ वेस्ट फ्रेंटिएर प्रेविनस '
के रस्ते कश्मीर पर हमला कर दिया और
लूटपाट नरसंहार करते हुए तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे, हमलावरों
ने रास्ते में बहुत उत्पात मचाई वो जिस ट्रक में आए थे उन्ही में लूटपाट का समान भर
के भेजने लगे। रास्ते
में हमलावरों ने बहुत हत्याए की बलत्कार किये औरतों के साथ जबरदस्ती की , उनके निशाने पर हिन्दू. शिख , ईसाई
यहाँ तक की मुसलमानो पर भी अत्याचार किये।
हमलावरों ने पुरे कश्मीर में आगजनी की दुकानों को जाला दिया।
इस बीच महाराजा हरि सिंह ने हमलावरों
को रोकने का भरसक प्रयास किया, और जब हालात उनके काबू से बहार
निकल गई और कश्मीर के हालात बदतर होने लगे, तब महाराज ने भारत
सरकार से मदद की गुहार लगाई और जम्मू -कश्मीर को भारत में शामिल
करने का फैसला किया. इसके साथ ही उन्होंने 26 ऑक्टोबर 1947 को ' इंस्ट्रूमेंट
ऑफ़ अक्सीशन ' पर दस्तखत कर के जम्मू- कश्मीर
को भारत में शामिल कर दिया। और इस तरह कश्मीर का भारत में विलय ओ गया।
लेकिन विलय के बाद भी राजा हरि सिंह
के मन में यह डर था की क्या इतनी जल्दी भारतीय सेना कश्मीर में आ कर मोर्चा सम्भाल
पाएगी क्योकि कबायली हमलावर श्रीनगर से कुछ ही घण्टों की दुरी पर थे। महाराज ने तो यहाँ तक फैसला कर लिया
था कि अगर सुबह तक भारतीय फौज श्रीनगर नहीं पहुँच पाई तब वो अपनी प्राण त्याग देंगे
वो आत्महत्या कर लेंगे।
कश्मीर में भारतीय
सेना भेजने की प्रक्रिया –
कश्मीर के भारत में
विलय के बाद उसी दिन कश्मीर में सेना भेजने के मुद्दे पर पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, लॉर्ड लुइ माउंटबैटेन, और भारतीय आर्मी के जनरल
ऑफिसर कमांडिंग ' लेफ्टिनेंट जनरल एफ आर बुकर ' की दिल्ली में चर्चा शुरू हुई चूँकि उस वक्त भारतीय सेना और पाकिस्तानी
सेना दोनों के जो कमांडिंग अफसर थे वो अंग्रेज थे। और इन दोनों मुल्को के सेनाओ के जो सुप्रीम
कमांडर यानि भारत और पाकिस्तान दोनों के देनो के प्रमुख थे वो थे ' जनरल ऑकिनलेक '
ऑकिनलेक लार्ड मौन्टबैटन के नीचे
आते थे। चर्चा में नेहरू जी और सरदार पटेल ने कहा की कश्मीर अब भारत का हिस्सा है,
कश्मीर की रक्षा करना अब भारत का दायित्व है। और इसके लिए भारतीय
सेना को कश्मीर भेजने को कहा , लेकिन अंग्रेज अफसर समय का
आभाव और पर्याप्त साधन न होने का हवाला देकर सेना भेजने से बचना चाहते थे। परन्तु भारत सरकार ने साफ - साफ कह दिया चाहे
कुछ भी हो जाए हम जानबूझ कर कश्मीर को
नरसंघार की आग में नहीं छोर सकते नहीं तो ये आग धीरे- धीरे पुरे देश में फ़ैल जाएगी
, धार्मिक दंगे होने लगेंगे इस लिए हमें किसी भी हल में
कश्मीर को बचाना होगा। इसमें भारत सरकार साधन जुटाने में सेना की पूरी मदद करेगी।
और फिर रातो- रात सेना भेजने के सरे इन्तजामात किये गए। माउंटबैटेन ने सेना भेजने
की इजाजत दे दी और साथ - ही -साथ यह भी
कहा की जब कश्मीर में हालात सामान्य हो जाए तथा जब कश्मीर में लॉ एंड आर्डर
स्थापित हो जाए तब कश्मीर में जनमत संग्रह करे जाए इस बात का नेहरू और पटेल दोनों
में से किसी ने विरोध नहीं किया। और अगले
ही सुबह यानि 27 अक्टूबर 1947 की सुबह '
लेफ्टिनेंट कर्नल दिवान रंजीत राय '
की अगुआई में
भारतीय फौज हवाई मार्ग द्वारा कश्मीर के लिए रवाना हुई।जैसे ही एक बार भारतीय फ़ौज
के कदम एक बार कश्मीर के जमीं पर पड़ें तो धीरे- धीरे सारे कबायली हमलावरों के पाव
उखड़ने लगे। लड़ाई में शेख अब्दुल्ला और उनकी '' नेशनल कॉन्फ्रेंस '' के समर्थको ने
एक अहम् भूमिका निभाई उन्होंने भारतीय फ़ौज
का साथ दिया और कश्मीरियों को यह भरोसा दिलाया की वो अकेले नहीं है और कश्मीर में
भारतीय फ़ौज उनकी हिफ़ाजत के लिए है। कश्मीर कड़ी के शेख अब्बदुला एक अहम् करि थे,
शेख अब्दुल्ला ने अली गढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एमएससी तक की पढ़ाई की थी लेकिन डिग्री होने के बावजूद उनको जम्मू-
कश्मीर में नोकरी नहीं मिली।
इससे शेख पर गहरा प्रभाव पर था और उन्होंने
मुस्लिम बाहुल्य जम्मू- कश्मीर में सभी पदों पर ज्यादातर हिन्दू होने पर हिन्दू
राजा हरि सिंह का विरोध किया। और उन्होंने महाराजा के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन
चलाया था। जिसके बाद महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करा लिया था।
शेख पंडित नेहरू के बहुत करीबी थे,
और वो कश्मीर को भारत में बने रहने के हिमायती थे। इसलिए नेहरू ने
कश्मीर के हालात बिगड़ते देख महाराज पर दबाव बना कर शेख को बहार निकल लिया था।
क्योकि एक शेख अब्दुल्ला ही थे जो भारत के साथ खड़े हो सकते थे। और शेख जम्मू-
कश्मीर में बहुत लोकप्रिय थे । उमर अब्दुल्ला शेख अब्दुल्ला के ही पोते है,
जो वर्त्तमान में जम्मू-कश्मीर के
राजनीति में सक्रिय है। भारत के इस कदम ने
पाकिस्तान के गवर्नल जनरल '' मोहम्मद अली जिन्ना '' को बेचैन कर दिया
और उन्होंने पाकिस्तानी सेना को
श्रीनगर भेजने का हुक्म दे दिया, परन्तु पाकिस्तान के
कमांडिंग चीप '' जनरल ग्रेसी '' ने
उन्हें यह कहकर पाकिस्तानी फ़ौज को श्रीनगर भेजने से मना कर किया की कश्मीर अब भारत
का हिस्सा है, कश्मीर ने अपना विलय भारत में कर लिया है। अतः
वो बिना सुप्रीम कमांडेंट '' जनरल अकिनकेल '' के इजाजत के पाक सेना श्रीनगर नहीं जा सकती। इसके बाद जब 'जिन्ना' जनरल अकिनलेक पर पाकिस्तानी सेना श्रीनगर
भेजने को ले कर दबाव बनाना चाहा तो अकिनलेक ने साफ मना कर दिया और कहा की अगर
जिन्ना ज्यादा दबाव बनाएँगे तो पाकिस्तानी फ़ौज में तैनात सभी ब्रिटिश सैनिको को
निकाल लिया जाएगा। जाहिर सी बात थी श्रीनगर में पाकिस्तानी फ़ौज भेजना मतलब भारत से
खुला युद्ध छेड़ना और चूँकि ' जनरल अकिनलेक ' भारत और पाकिस्तान दोनों सेनाओं के सेना प्रमुख थे, तो
एकही देश के अपसर [ ब्रिटिश ऑफिसर ] आपस में युद्ध कैसे करते।भारत और पाकिस्तान के
बीच पहली आधिकारिक बैठक - तत्पश्चात, जिन्ना ने भारत को
कश्मीर पर बात करने के लिए लाहौर आने का नेवता दिया। लाहौर जाने के सरदार बल्लभ
भाई पटेल तैयार नहीं थे
, उनका
कहना था, कि पहले हमला पाकिस्तान ने किया है, तो बातचीत करनी है तो वो आए दिल्ली हम
पाकिस्तान नहीं जाएंगे, परन्तु पंडित नेहरू और
माउंटबैटेन चाहते थे कि कश्मीर मशला बात- चीत
से हल हो जाए और वे लाहौर जाने के समर्थन में थे। तो सरदार पटेल खुद लाहौर
जाने से मन कर दिया, उस समय पंडित नेहरू की तबीयत ठीक ख़राब
थी,और उनकी तबीयत लाहौर जाने के अनुकूल नहीं थी। अतः इस
मीटिंग में लार्ड माउंटबैटेन को अकेले ही जाना पड़ा। इस मीटिंग में जिन्ना ने यह
मान लिया की पहला हमला पाकिस्तान के तरफ से हुआ था, और
जिन्ना ने कहा की अगर भारत अपनी सेना को कश्मीर से वापस बुला लेती है तो पाकिस्तान
भी सब कुछ यही रोक देगा। इसके पहले की इस मीटिंग का कोई नतीजा बहार आए, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने
अपना सबसे
विवादास्पद और चौकाने वाला बयान रेडियो पर दे दिया। उनका बयान यह था कि - भारत
सरकार इस बात के लिए तैयार है कि कश्मीर में शांति व्यवस्ता और लॉ एंड आर्डर स्थापित होते ही '' संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ''
के देख-रेख में कश्मीर में
जनमत संग्रह करे जाएंगे। यही से भारत की
मुश्किलो की शुरुवात हो गई और यह मामला 1 जनुअरी 1948 को '' संयुक्त
राष्ट्र '' पहुँच गया।
लेकिन इसके बाद जो हुआ वो पंडित नेहरू के लिये
एक सदमे जैसा था। सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान के खिलाफ भारत के शिकायत को
नजरअंदाज दिया गया। और सुरक्षा परिषद् ने दोनों देशो को एक ही तराजू में तौलने
लगे। इसके साथ सुरक्षा परिषद् में अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश अपने राजनैतिक हितो
को साधने में लग गए, तथा
पाकिस्तान अपने सारे बातो से मुकर गया और कबायली हमलावरों को पाकिस्तान द्वारा
समर्थन दिए जाने वाले सभी दावो को ख़ारिज कर दिया,और ब्रिटेन
के एक प्रतिनिधि मंडल ने पाकिस्तान के इस बात
का समर्थन भी कर दिया। इसके बाद 'संयुक्त राष्ट्र'
ने कश्मीर मुद्दे को भारत पाकिस्तान मुद्दा बनाकर एक कमीशन ''
यूनाइटेड नेशन कमीशन फॉर इंडिया एंड पाकिस्तान '' गठित कर दिया। संयुक्त राष्ट्र में चल रहे इस खेल को देख कर नेहरू जी का
यह इरादा तो पक्का हो गया की कश्मीर को लो ले के कोई समझौता नहीं करेंगे।संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद् द्वारा पारित प्रस्ताव [रिजोलुशन ] और L.O.C ;- 13 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् द्वारा एक
प्रस्ताव पारित किया गया जिसके बाद जम्मू-कश्मीर में युद्ध विराम घोषित हुआ,तथा भारत और पाकिस्तान के बीच '' सीज फायर ''
लागु हुआ और ''लाइन ऑफ़ कंट्रोल ''
[L.O.C ] पहली बार स्वाभाव में आया। इसबीच भारतीय देना आगे बढ़ रही
थी। भारतीय सेना ने पश्चिम में पूंछ और उत्तर में द्रास कबाइलियों को पूरी तरह
खदेड़ दिया था। १३ अगस्त १९४८ में '' यूनाइटेड नेशन कमीशन फॉर
इंडिया एंड पाकिस्तान '' द्वारा पारित किये गए प्रस्ताव में
साफ- साफ कहा गया है कि पुरे जम्मू-
कश्मीर राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत की है। और कथाकथित पाकिस्तान के कब्जे
वाले कश्मीर जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है उसे कोई मान्यता नहीं दी जाएगी
तथा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को जम्मू- कश्मीर के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया
जाएगा। प्रस्ताव में कहा गया है कि उत्तरी कश्मीर के खली करे गए इलाके जम्मू-
कश्मीर को लौटाए जाएं और इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत की होगी। इस प्रस्ताव की
सबसे मत्वपूर्ण बात यह थी कि ' जनमत संग्रह ' कराने के लिए तीन जरुरी कदम उठाए जाने थे। [१] पाकिस्तान को कश्मीर से अपनी सेना हटानी थी
, और अगर ''संयक्त राष्ट्र '' पाकिस्तान के आसैन्यकरण से संतुष्ट होता तो भारत भी अपनी सेनाएं हटाता।
[२] भारत को अपनी सुरक्षा के लिए सीमित संख्या में सेना रखने की इज्जाजत थी,
ताकि पाकिस्तान फिर से हमला न कर दे। [३] तीसरा कदम यह था की अगर
दोनों कदम ठीक से उठाए जाएंगे तब फिर जनमत संग्रह कराया जाएगा। लेकिन अफ़सोस की बात
यह है की पाकिस्तान ने तो अब तक पहला कदम ही नहीं उठाया दूसरा और तीसरा कदम तो दूर
की बात है। संयुक्त राष्ट्र का यह प्रस्ताव आज तक उनकी वेब साइट पर ही और बिना इसे
पढ़े लोग कश्मीर - कश्मीर चिल्ला कर सड़क पर उत्तर आते है।
अक्साई चीन जम्मू-
कश्मीर का वह भाग है, जिसपर 1962 के भारत- चीन
युद्ध के बाद चीन ने अवैध रूप से कब्ज़ा कर लिया। और अब तक उसपर चीन का ही
कब्ज़ा है। इसके बाद 1963 में पाकिस्तान और चीन के बीच हुए समझौते के दौरान पाकिस्तान ने '' पाक अधिकृत कश्मीर '' का 5,180 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा गैरकानूनी ढंग से चीन को सौप दिया।
और पाकिस्तान ने चीन से दोस्ती कर ली। इसके बाद 1970 में पाकिस्तान के द्वारा '' गिलगित एजेंसी '' और '' बाल्टिस्तान डिस्टिक '' को मिला कर '' नॉर्थन एरिया '' बनाया गया
जिसका एक बार हिस्सा चीन के कब्जे में है। इसतरह चीन और पाकिस्तान ने मिल कर कश्मीर मुद्दे को इतना उलझा दिया की यह मशला शायद ही सुलझे।
और पाकिस्तान ने चीन से दोस्ती कर ली। इसके बाद 1970 में पाकिस्तान के द्वारा '' गिलगित एजेंसी '' और '' बाल्टिस्तान डिस्टिक '' को मिला कर '' नॉर्थन एरिया '' बनाया गया
जिसका एक बार हिस्सा चीन के कब्जे में है। इसतरह चीन और पाकिस्तान ने मिल कर कश्मीर मुद्दे को इतना उलझा दिया की यह मशला शायद ही सुलझे।
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